“ अनंत सागर यात्रा “
सागर के किनारे से उतरकर
कब लहरों में बह गई ,
पता ही नहीं चला!
उसने भी इस क़दर
अपना बनाया कि
कब ख़ुद को खो दिया
पता ही नहीं चला!
वो मिले तो ज़िंदगी को
एक आयाम मिल गया है
कुछ ऐसे..,
सागर में बहती
अकेली कश्ती को
किनारा मिल गया हो जैसे…!
सागर की लहरें आज
मेरी बैचेनी बढ़ा रही है.. ,
ये आग़ाज़ है किसी तूफ़ान का
या अपना प्यार जता रहीं हैं?
यूं ना देखो मुझे,
ये आंख तो बस एक
ज़रिया है इज़हार का,
जो उतर कर देखोगे मेरे दिल में,
मिलेगा एक सागर प्यार का।
आप तो अनंत सागर हो,
मै जरा सी बूंद आपकी..!
जो अलग हुई बूंद सागर से,
हाल वहीं होगा जैसे होती है
रोशनी बिना चांद की..!
लकीरों में क्या रखा है..
मैं उन्हें रोज़
किस्मत से चुराती हूं…!
वो सागर है..और ,
मेरा प्यार इतना गहरा ,कि,
उस सागर को मेरे दिल में,
डुबोए फिरती हूं…!
मेरी ईश,
आप जाएं जहां भी
आपका साया बनके,
आपके साथ जाऊंगी..!
आपका एक दीदार पाने के लिए,
सागर हज़ारों तैर कर
आपके पास चली आऊंगी…!
मत घबरा,ऐ मेरे दिल,
तुझमें और मंज़िल में
थोड़ी सी दूरी है,
चाहे जितना भी मुश्किल हो पहला क़दम
ज़रूरी है।
तट पर बैठे-बैठे तेरे
हाथ कहाँ कुछ आएगा?
रत्न मिलेंगे तुझको जब
सागर के तह में जायेगा,
कुछ ना आया हाथ समझना डुबकी अभी अधूरी है।
आत्मा परमात्मा से मिले
तभी यात्रा पूरी है!
-डॉ दक्षा जोशी
अहमदाबाद ।
गुजरात ॥