घाटों पर सुकून और ख़ूबसूरती
बेहिसाब मिलती है,
स्वर्ग सी झलक बनारस में
हर शाम दिखती है।
जो नज़ारा देख कर
मन में सुकून और ज़ुबां पर
महादेव का नाम आये ,
समझ लेना आप बनारस में
गंगा घाट आये !
यहां की ख़ूबसुरती में सब भूल गए !
बस महादेव का नाम जपते हम
गंगा के सारे घाट घूम गए।
हम अक्सर घाटों पर घूमने जाया करते हैं ,
अब हमें उन नज़ारों से प्यार हो गया ।
बनारस में जज़्बात है,
अनेक यहां घाट हैं ,
अतुलनीय है ये शहर ,
अब बन चुका हमारी जान है!
बनारस कहे या फिर वाराणसी
अब ये हमसे और हम इससे
जैसे दो जिस्म एक जान है!
सुबह के सुकून में और
शाम के नज़ारों पे दिल ठहरता है ,
ऐ बनारस तेरी हर अदा से
प्यार है हमें।
कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के,
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में,
इसे अचानक देखो,
अद्भुत है इसकी बनावट,
यह आधा जल में है,
आधा मंत्र में..!
आधा फूल में है,
आधा शव में..!
आधा नींद में है,
आधा शंख में,
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है,
और आधा नहीं भी है..!
जो है वह खड़ा है,
बिना किसी स्तंभ के,
जो नहीं है उसे थामे है,
राख और रोशनी के ,
ऊंचे-ऊंचे स्तंभ,
आग के स्तंभ,
और पानी के स्तंभ!
धुएं के ,ख़ुश्बू के,
आदमी के उठे हुए
हाथों के स्तंभ!
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य,
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में,
अपनी एक टांग पर खड़ा है
यह शहर,
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर!
लहरतारा है शान इसकी,
इस शहर में धूल,
धीरे-धीरे उड़ती है,
धीरे-धीरे चलते हैं लोग,
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे,
शाम धीरे-धीरे होती है,
यह धीरे-धीरे होना-
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को
इस तरह कि –
कुछ भी गिरता नहीं है!
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहां थी,
वहीं पर रखी है,
कि गंगा वहीं है,
कि वहीं पर बंधी है नाव,
कि वहीं पर रखी है ,
तुलसीदास की खड़ाऊं,
सैकड़ों बरस से!!!
-डॉ दक्षा जोशी
अहमदाबाद
गुजरात ।
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