यूं तो ख़्वाहिशों का कोई अंत नहीं.. ये एक अथाह समन्दर है मन में, जो हमारी पहचान बुनती है, जो जीवन के कालचक्र में ईंधन का काम करती है..
किसी को चाह बचपन की,
किसी को चाह तर्पण की,
किसी को जन्नत लुभाता है,
तो कोई फ़रिश्ता बनने की हसरत सजाता है। कोई परिवर्तन को है आतुर तो कोई इस पल में रुकना चाहता है। जितने लोग, उतनी हज़ार ख़्वाहिशें …!
ऐसे में मेरी भी कई ख्वाहिशें हैं , उन्हीं ख़्वाहिशों के ज़रिए आज आपसे अपनी सबसे बड़ी ख़्वाहिश बाँट रही हूँ और मुझे उम्मीद है कि मेरी ख्वाहिशें आप पर भी असर करेगी।
सबसे बड़ी ख़्वाहिश मेरी कि
मैं प्रकृति-गुण को अपनाउं,
बनूं वट-वृक्ष सी मैं,
औरों को शांति-शीतलता पहुँचाऊँ…!
अडिग रहूँ पर्वतों सी मैं,
कभी मुश्किलों से ना मैं घबराऊँ,
सबसे बड़ी ख़्वाहिश मेरी कि
मैं ख़ुद में प्रकृति गुण को समाउं..!
सुख-दुःख की आपाधापी में
मैं कभी ख़ुद को न उलझाऊँ,
सीख लूँ नदियों से मैं और अनवरत मंज़िल को बढ़ती जाऊं!
चाहतें और जो समुन्दर सी हैं , उनको बून्द-बून्द भरती जाऊं,
ख़ुद में मैं एक बाग़ बनूँ और दुनिया को महकाउँ..!
क़दम मिलाऊँ काल चक्र से ,
और परिवर्तन को मैं
आत्मसात करूँ,
दूँ अपना योगदान विश्व को ,
और कुछ मैं भी अब
ईजाद करूँ..!
पर आधुनिकता के आडम्बर में, कभी प्राकृतिक सुंदरता को
न बर्बाद करूँ,
बनूँ मैं जब भी प्रेरणाओं का बादल, धरा पर प्रेम-रस की बरसात करूँ..!
सबसे बड़ी ख़्वाहिश मेरी कि मैं ख़ुद में प्रकृति गुण को अपनाऊँ,
बनूं वट-वृक्ष सी मैं, औरों को शांति-शीतलता पहुँचाऊँ.
अडिग रहूँ पर्वतों सी मैं,
कभी मुश्किलों से ना
मैं घबराऊँ..!
सबसे बड़ी ख़्वाहिश मेरी कि
मैं ख़ुद में प्रकृति गुण को समाउं..!
जीऊँ मैं सनातन के मूल्यों पर, “वसुधैव कुटुम्बकम् “की
प्रचारक बन जाऊं,
जगत में है भारत भूमि महान
कि इसके गौरव के दिन लौटाउं!
है ऋण बहुत इस धरा का मुझपर, थोड़ा तो कर्ज चुकाऊं..!
दुनिया को अपने सपनों से,
जन्नत सा सुंदर सजाऊँ..!
-डॉ दक्षा जोशी
अहमदाबाद
गुजरात ।
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