

अहो ,कैसी यह शामकी बेला!
हो रहा रवि क्षितिज अस्त,
चित्त को कर रहा अस्त व्यस्त
नयन आकुल प्रिय मिलन को
आतुर पग चलने को आश्वस्त!
पंछी चले अपने नीड़ को,
छोड़ जगत का मेला,
अहो, कैसी यह शाम की बेला!
पीत किरणों का विस्तार धरा पर
दिनकर संग चन्द्र दिखे गगन पर
देवालय हो रहे गुंजित आरती से
और दीप है प्रज्वलित देहरी पर!
शिथिल पग से चल रहा,
यह पथिक अलबेला
अहो, कैसी यह शाम की बेला!
सूरज ढलकर पश्चिम पंहुचा
संध्या आई, आकर छाई!
सौ संध्या सी वह संध्या थी!
ये ढलती शाम के रंगों की
अलग ही कुछ बात है,
कभी ज़िंदगी के बीते दिनों की
याद दिला के जाती है,
कभी कोई ग़लती जो हो चुकी है
उसे अपने साथ ढाल के
मानो भुलाती जाती है।
कभी खिलते रंगों के साथ
किसी हसीन वक़्त की
ख़ुशहाली याद दिलाती है!
कभी लहराती हुई ठंडी
हवाओं के साथ
कोई मन को छू जाने वाली
ख़ुश्बू को खींच लाती है!
कभी किसी के साथ बितायी
उस हसीन शाम के वक़्त की
यादों में डूबा देती है,
और “संध्या” ये सुहानी शाम
सूरज से मिलते ही
ख़ूबसूरत रंगों को ओढ़ के
मानो ख़ुद को दुनिया में बिखेरतीहै…!!
-डॉ दक्षा जोशी
अहमदाबाद
गुजरात ।